डॉ.ब्रह्मदीप अलूने
करीब साढ़े बारह सौ किलोमीटर का सफर तय करके 45 साल की कांता अहीरे व उनकी साथी शीलाबाई पंवार महाराष्ट्र के औरंगाबाद शहर से जयपुर पहुंची। वे राजस्थान हाईकोर्ट की जयपुर पीठ की परिसर में दाखिल हुई और वहां लगी मनु की प्रतिमा पर उन्होंने कालिख पोत दी। यह घटना अक्तूबर 2018 में हुई जब हाईकोर्ट में मनु की प्रतिमा के यथावत लगे रहने या हटाने को लेकर याचिकाओं पर सुनवाई हो रही थी और कानून से इतर विरोध का यह रास्ता इन दो गरीब महिलाओं ने चुना। वे राजस्थान हाईकोर्ट में लगी मनु की मूर्ति हटवाना चाहती थी। सनातन धर्म के अनुसार आदि पुरुष मनु द्वारा लिखित मानव के आदि संविधान को मनु स्मृति कहा जाता है।
मनुस्मृति के नियमों में गहरी असमानताएं ही उसके विरोध को मुखर करती रही है। मनुस्मृति के पांचवे अध्याय के 148 वें शलोक में महिला को अपने जीवन कि विभिन्न अवस्थाओं में पिता,पति और बेटे के संरक्षण में रहना अनिवार्य बताया गया है,मनु स्मृति के अनुसार महिला किसी भी स्थिति में स्वतंत्र जीवन व्यतीत नहीं कर सकती और उसे पुरुष के संरक्षण में ही आजीवन रहना होगा। मनु का कहना था कि जो पिता अपनी कन्या का विवाह उसके रजस्वला होने के पूर्व नही करता वह पाप का भागी होता है। मनु के इस नियम के सामाजिक दुष्परिणाम बेहद भयानक हुए और समाज में स्त्रियॉं का विवाह बेहद कम आयु में होने लगा। इससे स्त्रियों के कम उम्र में माँ बनने और कमजोरी से उनकी मृत्यु का कारण भी बन गया। यही नही पत्नी के गलती करने पर पति द्वारा उसे दंडित करने का अधिकार भी मनु ने दिया,यही कारण रहा कि कालांतर में महिलाओं पर भयानक अत्याचार हुए और यह सिलसिला अब भी समाज में बदस्तूर जारी है। महिलाओं को लेकर मनु के इतने संकुचित और अव्यवहारिक विचार रहे कि उन्होंने अपनी लिखी किताब में राजा को यह सलाह दी कि वे अपने मंत्रियों के साथ गुप्त मंत्रणा से स्त्री को दूर रखे। इस प्रकार मनु ने महिलाओं को महज उपभोग और दूसरे दर्जे का नागरिक बना दिया।
मनु को भारत कि सनातन परंपरा में आदि पुरुष का स्थान दिया जाता है और उनके लिखे ग्रंथ मनु स्मृति को कानूनी किताब बताया जाता है। वहीं भारत के पिछड़े और वंचित वर्ग के लिए मनुस्मृति एक ऐसी रचना है जिसने समाज में असमानता को बढ़ावा दिया और जाति व्यवस्था कि नींव रखी। बुद्द ने अल्प जन हिताय,अल्प जन हिताय के मनु स्मृति के सिद्धान्त की कड़ी आलोचना करते हुए इसे अस्वीकार कर दिया था। डॉ.आंबेडकर ने मनुस्मृति को 25 जुलाई 1927 को महाराष्ट्र के तत्कालीन कोलाबा जिले के महाद में सार्वजनिक रूप से यह कहकर जलाया था की यह ग्रंथ समानता के अधिकार का गला घोंटता है और महिलाओं और पिछड़े लोगों के शोषण का मार्ग प्रशस्त करता है। डॉ. आंबेडकर अपनी किताब फ़िलॉसफ़ी ऑफ हिंदूइज़्म में लिखते है कि मनु ने समाज को चार वर्णों में बाँट कर जातीय व्यवस्था और असमानता के बीज़ बोये थे।
मनु स्मृति में 12 अध्याय है और जिसमें 2684 श्लोक लिखे गए है,कुछ संस्करणों में श्लोकों कि संख्या 2964 भी है। भारत की प्राचीन शिक्षा और परम्पराओं पर मनु के नियमों का गहरा प्रभाव रहा। इन कारणों से शिक्षा राज पुरोहितों और राज कुमारों तक ही सीमित रही अत: मनुस्मृति का ज्ञान भी राजाओं और राज पुरोहितों तक ही रहा, वे मनु स्मृति को आधार बनाकर लंबे काल तक शासन करते रहे। लेकिन जब अंग्रेज़ भारत आए और विलियम जोन्स ने इसका अनुवाद अंग्रेजी में किया तो मनु स्मृति कि समाज के वंचित वर्ग और महिलाओं के प्रति दुर्भावना सामने आ गई।
ब्रह्मा को सृष्टि का निर्माता माना जाता है लेकिन मनु ने ब्रह्मा को आधार बनाकर व्यक्ति और समाज को विखंडित कर दिया। मनु यह बताते है की जगत सृष्टा ब्रह्मा ने समस्त लोको की रचना की है। लोक कल्याण और वृद्धि के लिए उन्होंने अपने मुख से ब्राह्मण,भुजाओं से क्षत्रिय,जंघाओं से वैशय और पैरों से क्षुद्रों को उत्पन्न किया है। मनु स्मृति के अनुसार ब्रह्मा ने स्वयं ही इन चारों वर्णों के गुण निर्धारित किए है।
मनु ने इसे समाज का अनिवार्य अंग बनाने के लिए दैवीय शक्ति से जोड़ा और प्रत्येक व्यक्ति के लिए अपना कर्म करना अनिवार्य बताया। इसके साथ ही कहा कि अपने निर्धारित कर्तव्य का त्याग,अन्य वृति करना अवांछित और दंडनीय भी होता है। मनु स्मृति में इसका कड़ाई से पालन करवाने के लिए राजा को यह आदेशित किया कि उसका यह कर्तव्य है कि वह एक वर्ण का दूसरे वर्ण के कार्यों में हस्तक्षेप न होने दे।
समानता का सर्वक़ालीन अर्थ समाज में विशेषाधिकारों और विषमताओं को समाप्त करना है। लेकिन मनु ने ईश्वर के शरीर को चार भागों मे बांटकर असमानताओं को स्थापित कर दिया। यही नहीं मनुस्मृति में 12 अध्यायों में वर्णाश्रम धर्म की शिक्षा,धर्म की परिभाषा,ब्रह्मचर्य, विवाह के प्रकार आदि,गृहस्थ जीवन,खाद्य-अखाद्य विचार तथा जन्म-मरण, अशौच और शुद्धि,वानप्रस्थ जीवन,राजधर्म और दंड,न्याय शासन,पति-पत्नी के कर्त्तव्य,चारों वर्णों के अधिकार और कर्त्तव्य,दान-स्तुति,प्रायश्चित्त आदि तथाकर्म और ब्रह्म की प्राप्ति का जो विवेचन प्रस्तुत किया है उसमें वर्ण भेद के आधार पर लोकाचार कि बात कहकर समाज को असमानता में जकड़ दिया।
उदारवादी मानते है कि समानता वैधानिक होती है अर्थात व्यक्ति कानून व नियमों का सामाजिक आयाम यह बताता है कि जाति,धर्म,जन्म स्थान और प्रजाति इत्यादि के आधार पर भेद न करना न्याय है। जबकि मनु का न्याय कुल व जाति के आधार पर होता था। मनुस्मृति के अनुसार जाति,धर्म, श्रेणी धर्म,कुलधर्म और शास्त्रोक्त परम्पराओं आदि का अवलोकन करने के पश्चात ही न्याय करना उचित होता है।
मनु स्मृति के न्याय में असमान दृष्टिकोण को उसके इस उदाहरण से सीखा जा सकता है कि,”यदि क्षत्रिय ब्राह्मण को गाली दे तो सौ पण दंड दे,वैश्य के ऐसा करने पर दो सौ पण दंड दे किंतु यदि शूद्र किसी ब्राह्मण को गाली दे तो उसे प्राण दंड दिया जाना चाहिए।“
नैतिक समानता कि यह स्थापित संकल्पना है कि सभी व्यक्तियों के साथ समानता का व्यवहार होना चाहिए,क्योंकि सभी व्यक्ति ईश्वर कि समान संतान है। लेकिन मनु ने व्यक्ति को ईश्वर कि दृष्टि में ही अलग अलग संतान कि तरह प्रस्तुत किया।
मनुस्मृति को आंबेडकर ने समूचे समाज के लिए अभिशाप बताते हुए कहा था कि, “शत्रु वह लोग नहीं है जो जाति व्यवस्था के पालन करते है,बल्कि वो शास्त्र है जो जाति व्यवस्था का पाठ पढ़ाते है। असली उपचार शास्त्रों की श्रेष्ठता को ही नष्ट करना है।”
आंबेडकर का मानना था कि जाति व्यवस्था के अंत का मतलब अंतरजातीय भोज या अंतरजातीय विवाह नहीं बल्कि उन धार्मिक धारणाओं का नाश है जिन पर जाति व्यवस्था टिकी है।
मनु स्मृति का प्रभाव महाभारत काल में भी खूब देखा गया। कर्ण जैसे महावीर को बार बार सूत पुत्र कहकर अपमानित किया गया,यहीं नही उन्हें द्रोपदी के स्वयंवर से इसीलिए रोक दिया गया क्योंकि उन्हें निम्न कुल का माना गया। विदुर को दास पुत्र कि संज्ञा दी गई जबकि गुरु द्रोण का एकलव्य और कर्ण को शिक्षा न देने का संकल्प भी असमानता को प्रतिबिम्बित करता है। यह किसी गुरु का आदर्श आचरण नही हो सकता लेकिन मनु स्मृति के नियमों के अनुसार यह न्याय संगत था।
डॉ. आंबेडकर ने आधुनिक काल में भी मनु के नियम को यथोचित ठहराने वाले परंपरावादियों कि यह कहकर आलोचना की कि, “शिक्षा व्यवस्था पारंपरिक दिमाग को बदलने मे नाकामयाब सिद्द हुई है,इसकी जगह रूढ़िवादियों ने आधुनिक शिक्षा को एक हथियार की तरह इस्तेमाल किया है।”आंबेडकर सोचते थे की यही लोग जाति व्यवस्था और पाखण्डियों के संरक्षक थे। उन्होंने मनु कि वर्ण व्यवस्था को ही खारिज करते हुए कहा था कि,“वर्ण व्यवस्था से ज्यादा पतनशील और कोई व्यवस्था नही हो सकती जो लोगो के बीच सहयोग को रोकती है।”